Monday, January 31, 2011

जाँ निसार अख्तर के कुछ शेर

शर्म आती है की इस शहर में हैं हम की जहाँ,
न मिले भीख तो लाखों का गुजारा ही न हो.

आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मेरे रख देती हो,
चलते चलते रुक जाता हूँ  साड़ी   की दुकानों पर.

सस्ते दामो तो ले आते लेकिन दिल था भर आया,
जाने किसका नाम लिखा था पीतल के गुलदानो पर.

न कोई ख्वाब न कोई खलिश न कोई खुमार,
ये   आदमी   तो   अधूरा   दिखाई   देता   है.

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