Wednesday, February 2, 2011

राम मेश्राम की कविता ----कक्का जी

           कक्का जी
जागा बचपन मेरे अंदर कक्का जी,
हरा समन्दर,गोपी चन्दर कक्का जी.

उल्ट -पलट शतरंज सियासत की करके,
माया के घर लुटा मछन्दर कक्का जी.

कहा-सुना, देखा उस दिन से सकते में,
गाँधी जी के तीनो बन्दर कक्का जी.

काला जादू है चुनाव की पुडिया में,
जनता का हर दुःख छू मन्तर कक्का जी.

भरता नही हरगिज अमा कुछ भी कर लो,
बहुत बड़ा सुराख़ मुकद्दर कक्का जी.

लोकतंत्र की ऐसी तैसी कर डाली,
हमसे बढकर  कौन धुरंधर कक्का जी.

बना दिया कुछ रोटी ने कुछ किस्मत ने,
अच्छे अच्छों को घनचक्कर कक्का जी.

रोज आपको दुनिया कब तक करे सलाम,
आप कहाँ के शाह सिकन्दर कक्का जी.

सारी उम्र 'सिफर' पूजा का तोहफा है,
रोज मुकद्दर देता टक्कर कक्का जी.

हुआ आज तक यही,यही सब कल होगा,
कहे दमादम मस्त कलंदर कक्का जी.



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