शाहिर की शायरी --खून फिर खून है!
जुल्म फिर जुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है
खून फिर खून है, टपकेगा तो जम जायेगा
खाक -ए-सहरा पे जमे या कफे कातिल पे जमे,
रू-ए-इंसाफ पे या पाए-सलासिल पे जमे,
तेगे-बेदाद पे या लाशा -ए-बिस्मिल पे जमे,
खून फिर खून है, टपकेगा तो जम जायेगालाख बैठे कोई छुप छुप के कमींगाहों में ,
खून खुद देता है जल्लादों के मस्कन का सुराग,
साजिशें लाख ओढाती रहें जुल्मत की नकाब,
लेके हर बूंद निकलती है हथेली पे चिराग.
जुल्म की किस्मते-नाकारा-ओ-रुसवा से कहो,
जब्र की हिकमते-पुरकार के ईमा से कहो,
महमिले-मजलिसे-अकवाम की लैला से कहो,
खून दीवाना है दामन पे लपक सकता है,
शोला-ए-तुंद है खिरमन पे लपक सकता है.
तुमने जिस खून को मकतल में दबाना चाहा,
आज वो कूचा-ए-बाजार में आ निकला है,
कहीं शोला कहीं नारा कहीं पत्थर बन कर,
खून चलता है तो रुकता नहीं संगीनों से,
सर उठता है तो दबता नहीं आइनों से.
जुल्म की बात ही क्या,जुल्म की औकात ही क्या,
जुल्म बस जुल्म है, आगाज से अंजाम तलक ,
खून फिर खून है सो शक्ल बदल सकता है,
ऐसी शक्लें की मिटाओ तो मिटाए न बने ,
ऐसे शोले की बुझाओ तो बुझाए न बने,
ऐसे नारे की दबावों तो दबाये न बने.
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