Thursday, March 17, 2011

हम --[एक निरंतर कविता ]

गणतन्त्र दिवस हम फिर मना रहे हैं ,
बंधुवा लोगों को आजाद   बता रहे हैं,

हक  मांगने  वालों पर गोली चलाई हमने,
मरहम लगा कर हम ही शाबाशी पा रहे हैं.

जनता की हालत क्या है, मालूम नही है हमको,
विकाश   बहुत  किया  है,  कागज  बता  रहे  हैं.

कानून  और  व्यवस्था  की  स्थिति ठीक है,
गली गली  में  फिर से  कर्फ्यू  लगा  रहे  हैं.

भगत सिंह हो  या गाँधी,  नासमझ  थे   सारे,
उन्होंने जिन्हें भगाया, उन्हें वापिस ला रहे हैं.

हम वीरों के वारिश हैं और ऋषियों की सन्तान हैं,
कहीं  बेटियां  मार रहे हैं,  कहीं  बहुएं  जला रहे हैं.

सारी दुनिया हमारी  ऋणी  थी, है  और रहेगी,
इसलिए  धन  विदेशों  में  जमा  करा  रहे  हैं.

हमारा मुकाबला कोई कर ही नही सकता,
सोलहवीं  सदी  से  इक्कीसवीं में जा रहे हैं.




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